लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ: हिंदी दिवस विशेष : कोई खतरा नहीं है हिन्दी को: हर साल हिन्दी दिवस आता है, चला जाता है। हर साल सरकारी दफ्तरों में, स्वायत्त संस्थाओं में हिन्दी को लेकर कुछ सभाएँ हो जाती हैं। बैंकों में कुछ बातें हो जाती हैं। पब्लिक सेक्टर संस्थानों में कुछ हिन्दी-हरकत हो जाती है। कवि सम्मेलन टाइप कुछ हो जाता है। हिन्दी की समस्याओं पर चिंता कर ली जाती है।
हिन्दी राष्ट्रभाषा बताई जाती है जबकि वह राजभाषा मात्र है और राष्ट्रभाषा व राजभाषा में भेद है। हिन्दी प्रेमी लोग उसे राष्ट्रभाषा ही कहते हैं। तकनीकी तौर पर वह भारत की एक भाषा है और राजभाषा होने के कारण उसे केंद्र सरकार का एक हद तक समर्थन प्राप्त है। पब्लिक सेक्टरों में हिन्दी अधिकारी होता है वह इसीलिए। उनके दफ्तरों में 'हिन्दी राष्ट्रभाषा है', 'हिन्दी में कामकाज करना चाहिए' ऐसे बोर्ड भी लगे होते हैं। कही-कहीं महात्मा गांधी का या अन्य किसी महापुरुष का हिन्दी को लेकर दिया गया वक्तव्य भी लिखा होता है। लेकिन हिन्दी वालों का रोना फिर भी नहीं थमता। हर हिन्दी दिवस पर हर कहीं हिन्दी के बिगड़ते रूप पर विद्वान चिंता करते हैं। लोकल प्रतिभाओं को इनाम आदि देते हुए वे दो-तीन बातें कॉमन कहते हैं : 'हिन्दी में अंगरेजी आ रही है। यह मीडिया ने किया है, बाजार ने किया है। यह हिन्दी साहित्यिक हिन्दी नहीं है। हमारे बच्चे हिन्दी को पसंद नहीं कर पा रहे हैं। हिन्दी वाले अपने बच्चों को अंगरेजी स्कूलों में पढ़ाते हैं, और हिन्दी की चिंता करते हैं। यह चिंता झूठी है, इत्यादि।' ऐसी चिंताओं को हर कहीं सुना जा सकता है।
हिन्दी को खतरा पैदा हो रहा है। यह थीम शाश्वत सी बन चली है। लेकिन तथ्य एकदम अलग बात कहते हैं। तथ्य यह है कि हिन्दी लगातार बढ़ रही है, फैल रही है और वह विश्वभाषा बन चली है। उसकी 'रीच' हर महाद्वीप में है और उसका बाजार हर कहीं है। हमारी फिल्मों के गानों के एलबम अमेरिका, अफ्रीका, एशिया, योरप कहीं भी मिल सकते हैं और फिल्में एक साथ विश्व की कई राजधानियों में रिलीज होती हैं।
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